रामजी की धरती पर रावण की जीत
हँसती रहूं या फिर रो दूँ मैं रामजी?
राधा की धरती पर स्वारथ की प्रीत
जग जाऊँ कुछ छण या सो जाऊँ रामजी?
पीठों पर खंजर है
अपने ही जन का,
ऐसा भी परिवर्तन
होता है मन का?
कृष्ण औ’ सुदामा के धरती के मीत
चलती रहूं या फिर थक जाऊँ रामजी?
कुछ भी न बोले, क्यों
चुप है परमात्मा,
कहाँ गयी वह गीता
भारत की आत्मा?
सीता के जीवन की यह नंगी रीत
देखूं कुछ या आंखे ढक लूँ मैं रामजी?
गुमसुम से दिन हैं ये
चुप-चुप सी रातें,
भय से लिपटे छण हैं
भय की हैं बातें।
जीवन पग-पग पर आंसू के गीत
जीऊं जीवन को या मर जाऊं रामजी?